एक ऐसा आदर्श … जो समाज के सामने हमेशा एक ऐसा चरित्र रहे कि….. समाज के बच्चे, वयस्क और वृद्ध सभी उस आदर्श का अनुसरण कर सकें, ताकि समाज सुखी और खुश रह सके।
क्योंकि… महर्षि वाल्मीकि उस समय अर्थात आज से लगभग 6000 वर्ष पहले मानव के मनोविज्ञान और उसके व्यवहार का इतना गहरा सत्य समझ गए थे कि ….. हम मानवों को समुचित विकास के लिये कुछ आदर्शों की अनिवार्यतः आवश्यकता होती है…।
और…. यदि हम बच्चों को ऊँचे आदर्श नहीं देंगे तब वे टीवी के नचैय्यों-गवैय्यों को अनजाने ही अपना आदर्श बना लेंगे.. तथा उनके कपड़ों या फ़ैशन की……अथवा उनके (झूठे) खानपान की….. और… उनकी जीवन शैली की नकल करने लगेंगे…।
और इसमें कोई आश्चर्य कि बात नहीं है कि……वाल्मीकि रामायण के राम का यह आदर्श इतना सशक्त बना कि ……..राम हिन्दू धर्म के न केवल आदर्श बने वरन वे हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि बन गए… और, भगवान राम की ऊँचाई से हिन्दू धर्म की ऊंचाई नापी जाने लगी….. ।
इसीलिए…. ऐसे ऊँचे आदर्श को गिराने से हिन्दू धर्म पर चोट पहुँचेगी और उसके अनुयायी अन्य धर्म को स्वीकार कर लेंगे……. इस विश्वास के आधार पर हमारे शत्रुओं ने दो झूठी, किन्तु आदर्श -सी दिखने वाली घटनाएं…… रामायण में बहुत रोचक तथा विश्वसनीय बनाकर डाल दी ।
आश्चर्यजनक रूप से….. इन दो घटनाओं को उसी रामायण में इतनी कुशलता से जोड़ दिया गया कि पाठक को संदेह भी न हो और राम के पुरुषोत्तमत्व पर भी धब्बा लग जाए ……. अर्थात …सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे…..!
यही तो प्रक्षेप या चोरी से माल डालने वाले ‘शत्रु -चोरों’ का कौशल है…….जिसमें उऩ्होंने आशातीत सफ़लता पाई है…..।
हालाँकि रामायण में अनेक प्रक्षेप हैं… परन्तु , इस समय मैं उत्तरकाण्ड के एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्षेपों की चर्चा करूँगा ….
” श्री राम ने लोकनिंदा के भय से सीता जी को, वह भी जब वे गर्भवती थीं, वन में भेज दिया था। “
यहाँ….. सीता जी की अग्नि परीक्षा पर एक टिप्पणी उचित होगी….क्योंकि….इस विषय को लेकर भी राम पर आक्षेप लगाए जाते हैं….!
कहा जाता है कि…. भगवान राम एवं वाल्मीकि पुरुष वादी थे …… इसीलिये, उऩ्होंने सीता जी की अग्नि परीक्षा तो करवाई…जबकि, राम की कोई परीक्षा नहीं करवाई….।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि….. पूरी रामायण में ऐसी एक भी घटना नहीं है …… जिस से राम के चरित्र पर तनिक सा भी संदेह हो सके……. बल्कि, ऐसी घटनाएं हैं जिनसे…. उनके एक पत्नीव्रत की दृढ़ता बढ़ती है।
लेकिन दूसरी तरफ…. माता सीता रावण के अधिकार में थीं….. इसलिये उन पर कुछ भोले भाले लोग संदेह कर सकते हैं….. परन्तु कोई समझदार तो नहीं करेगा, क्योंकि रामायण में पुन: कहीं कोई ऐसी घटना नहीं है कि जिससे ऐसा संदेह सीता पर हो ।
यहाँ दृष्टव्य यह है कि…. यह संदेह वास्तव में सीता पर न होकर रावण के राक्षसत्व पर हो सकता है….. इसलिये संदेह न तो सीता पर है और न राम पर…. अतएव, इसमें पुरुष के अहंकारी होने का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिये।
किन्तु ….कुछ शत्रु हैं जो ऐसा प्रश्न उठाने के बहाने वास्तव में राम पर पुरुषवादी होने का आरोप लगाते हैं….।
अग्नि परीक्षा का ध्येय तो स्पष्ट है कि ……. राम और सीता जी दोनों को लोकापवाद से बचाना… क्योंकि, जब हम भोले भाले लोग उन पर लगे झूठे लोकापवाद को अग्निपरीक्षा के बाद भी मान सकते हैं तब बिना अग्निपरीक्षा के मानना तो बहुत ही सरल होता…।
अंग्रेजी में एक मशहूर कहावत है कि …….. ‘सीज़र्स वाइफ़ शुड बी बियांड डाउट’, … अर्थात , राजा की पत्नी के ऊपर कोई भी संदेह नहीं होना चाहिये….।
हमारे यहां भी ग्रंथों के अनुसार …., ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्तदेवेतरो जन: ‘ …… अर्थात , श्रेष्ठ लोगों के कार्य अनुकरणीय हैं..।
इसीलिए …ऐसे ही आरोपों से बचने के लिये तो अग्नि परीक्षा जैसी कठोर परीक्षा की गई थी ।
इस तरह….इन तार्किक विचारों को भुलाकर जो भगवान राम पर आरोप लगाते हैं या अग्नि परीक्षा करवाने के लिये राम पर दोषारोपण करते हैं….. वे या तो बेहद भोले भाले लोग हैं या फिर हमारे शत्रु हैं।
दरअसल…. हम लोग लिखे शब्द और बचपन से सुनी बातों पर इतना अधिक विश्वास करते हैं कि…. उसे सच मान लेते हैं और, उसे सिद्ध करने के लिये तर्कों का आविष्कार करने लगते हैं तथा यह झूठी कहानी तो मिथिला के ही नहीं सारे भारत के लोक गीतों में अर्थात जनमानस में पैठ गई है।
बहुत से पाठक और यहां तक कि विद्वान भी…….. श्री राम के सीताजी के वनवास की घटना को सिद्ध करने के लिये तरह तरह के तर्क देते रहते हैं…. जबकि, यह दोनों घटनाएं श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र तथा कार्यों के साथ तनिक भी मेल नहीं खातीं…. फिर भी हम ना जाने क्यों उन पर विश्वास कर लेते हैं और उल्टे सीधे तर्कों द्वारा सिद्ध करते रहते हैं…..।
भवभूति ने अपनी रचना की दृष्टि को बतलाने के लिये लिखा था कि ……. वे राम की समग्रता को अभिव्यक्त करना चाहते हैं…. मानों कि , वाल्मीकि अपनी दृष्टि के अनुकूल राम को समग्रता में अभिव्यक्त नहीं कर पाए थे… क्योंकि, “ चारित्रिक समग्रता को ऐसे नहीं कूता जा सकता है… और, ‘महावीर’ (भवभूति रचित ‘महावीर चरित’ और ‘उत्तर रामचरित’) राम का पूरा पर्याय नहीं हो सकता।
भवभूति कुछ अधिक विशेषण उछालते हैं तो ……. इससे राम अधिक विशिष्ट कहीं नहीं उभर पाते…. क्योंकि, शब्दाडम्बर वीरत्व पर हावी हो भी जाए… फिर भी, ऐसे राम की आंशिक समग्रता मर्म को मथती नहीं है।”
सीता के राम द्वारा वनवास दिये जाने की घटना पर मेरा साधारण सा प्रश्न है कि…, “सीता क्या कोई निरी वस्तु है जिसे राम जब चाहें रखें, जब चाहें छोड़ दें ?????
यह व्यंग्य स्पष्ट है क्योंकि….. सीता जी शेष चरित्र में शक्तिशाली, आत्मविश्वासी तथा आत्मसम्मानी हैं… और, कहने का तात्पर्य यह है कि…. ऐसे राम वाल्मीकि के आदर्श तो नहीं हो सकते, क्योंकि, वाल्मीकि ने ऐसा रामायण में नहीं कहा….. जिसका सीधा सा मतलब है कि…. यह वर्णन वाल्मीकि रामायण में बाहर से डाला गया है… और एक प्रक्षेप मात्र है।
इस सम्बन्ध में कुछ प्रमाणों को देखने से सभी बातें … दूध का दूध और पानी का पानी हो जाती हैं……
प्रमाण– 1:- वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का समापन पढ़ने से यह तो एकदम स्पष्ट हो जाता है कि….. वाल्मीकि रामायण वहीं पर समाप्त हो जाती है.. क्योंकि, वहां स्पष्ट लिखा है कि …. राज्याभिषेक के पश्चात श्री राम ने 11000 वर्ष राज्य किया। अभी इस विवाद में न पड़ें कि…. वे 11000 वर्ष राज्य कैसे कर सकते थे .. और, इसे कवि द्वारा इसे उनकी अतिशयोक्ति समझें !
साधारण भाषा में समझ लें कि…. उऩ्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया…. क्योंकि, शब्द ‘हजारों’ का आधिक्य दर्शाने के लिये उपयोग बहुत प्रचलित था और अभी भी ऐसे उपयोग के हजारों उदाहरण मिलते है।
अतः…. इस एक वाक्य से कि “11000 वर्ष सुखपूर्वक राज्य किया”, … से ही स्पष्ट है कि ….. रामायण का समापन हो गया और, कोई महत्वपूर्ण या दुखद घटना की बात नहीं होना है।
2- युद्ध काण्ड के समापन पर रामायण पाठ की फ़लश्रुति आ जाती है कि – ‘जो भी इस रामायण का पाठ या श्रवण करेगा उसे बहुत पुण्य मिलेगा’ इत्यादि।
जब नारद जी वाल्मीकि को राम कथा सुनाते हैं … तब वहां भी फ़लश्रुति है.. तथा किसी अन्य काण्ड के अंत में फ़लश्रुति नहीं है।
यहाँ ध्यान देने कि बात यह कि…. पारंपरिक फ़लश्रुति ग्रन्थों के अंत में आती हैं अर्थात वाल्मीकि रामायण का समापन युद्धकाण्ड के बाद हो गया… इसीलिए , इसके बाद उत्तरकाण्ड के लिखे जाने की बात ही नहीं बनती।
हालाँकि, इसके विरोध में भी तर्क दिये जाते हैं कि … फ़लश्रुति लिखने की परंपरा वाल्मीकि के काल में नहीं थी, अत: यह प्रक्षेप है…. ।
लेकिन, जब रामायण विश्व का प्रथम काव्य है तब इसमें परम्परा की बात करना ही ऐसे व्यक्ति की नीयत पर संदेह पैदा करता है.. क्योंकि, वे तो परम्परा स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे।
जब वाल्मीकि का ध्येय ही एक आदर्श चरित्र प्रस्तुत करना था… तब फ़लश्रुति तो वहां स्वाभाविक लगती है।
खैर, यदि हम तर्क के लिये मान भी लें कि…. फ़लश्रुति बाद में लिखी गई, तब भी यह तो निश्चित है कि वह फ़लश्रुति इस उत्तर काण्ड के प्रक्षेप के पहले लिखी गई थी….और यदि, फ़लश्रुति उत्तरकाण्ड के प्रक्षेप के बाद लिखी गई होती तब तो उसे उत्तर काण्ड के बाद ही होना था, न कि युद्ध काण्ड के पश्चात !
ये तो अच्छा अच्छा हुआ कि….. वह चोर शत्रु युद्धकाण्ड के अंत से ‘फ़लश्रुति’ निकालना भूल गया, वरना उसके चोरी की विश्वसनीयता और बढ़ जाती।
लेकिन कहा गया है कि…… चोर चाहे कितना भी होशियार क्यों ना हो…. अपनी चोरी के हमेशा कुछ न कुछ निशान छोड़ ही देता है।
3:- इसका तीसरा प्रमाण यह है कि…. जिस राजा से उत्तम न्याय की अपेक्षा हो और, वह ऐसा न्याय कर दे जो नितान्त अन्याय हो तब उस राजा को कोई भी मूर्ख के अतिरिक्त क्या मानेगा !
और यह सर्वविदित है कि…न्याय के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि …. दोनों पक्षों… अर्थात , आरोपी तथा अभियुक्त, को सुना जाए।
परन्तु…. इस राजा ने तो एक भी पक्ष को नहीं सुना…. और, एक पक्ष को विश्वसनीय सूत्रों द्वारा सुनने को भी नियमों के अनुसार ‘हियरसे’ अर्थात ‘कही सुनी बात’ माना जाता है, उसे प्रमाण नहीं माना जाता है ।
यह हमारे देश की न्यायिक पद्धति कभी नहीं रही कि… अभियुक्त को न केवल आरोप लगाने वाले से प्रश्न करने का अवसर न दिया जाए, वरन उसे भी सुना न जाए ।
हो सकता था कि…. प्रश्न करने पर वह आरोपकर्ता ही अपनी गलती स्वीकार कर सकता था – ‘ महाराज जी उस रात्रि तो मैं अपने पूरे होश में नहीं था, या मुझे बहुत ही अधिक क्रोध था।’
और अगर यह नहीं भी होता तब भी ….. न्याय प्रक्रिया की मांग है कि ..अभियुक्त को आरोपी से प्रश्न करने का अधिकार तो मिलना ही चाहिये ।
4:- इस बारे में एक सन्दर्भ उल्लेखित करना उपर्युक्त होगा कि….. वाल्मीकि रामायण में धोखे से एक पतिव्रता स्त्री देवी अहल्या के शीलहरण के पश्चात् … गौतम ऋषि द्वारा क्रोधित होकर उसे शापित कर पत्थर बना देने के बावजूद भी….
जो राम निश्चित रूप से दोषी अहल्या को उनके पति की श्राप से मुक्त कर सकता है…. क्या वही राम जानते हुए कि उसकी पत्नी निर्दोष है एक झूठी अफ़वाह के आधार पर उसे वन में निष्कासित कर सकता है…??????
कदापि नहीं……… परन्तु हां….. शत्रु द्वारा रचित झूठा प्रक्षेपित अहंकारी और पुरुषवादी राम तो ऐसा ही करेगा !
5:- सामान्यतया जो भी तर्क सीता- वनवास के पक्ष में दिये जाते हैं….. वे भवभूति के उत्तर रामचरित से लिये गए दिखते हैं….क्योंकि , न केवल वह बहुत ही प्रभावी है वरन उसका प्रचार अंग्रेजो के शासनकाल में और ‘समाजवादी स्वतंत्र भारत में भी खूब किया गया ……. तथा उसे लोकप्रिय नाटक बनाया गया।
हालाँकि, …. भावुकता मानव का एक संवेदनशील गुण है……. किन्तु अधिक भावुकता तो मनुष्य की बुद्धि पर ग्रहण लगा देती है जो एक राजा के लिये नितांत अवांछनीय है…।
भगवान राम को भवभूति ने इतना ऊँचा भावुक आदर्श पुरुष बना दिया है कि….. जब राम लक्ष्मण को सीता जी को वन में छोड़ने का आदेश देते हैं तब, लक्ष्मण उऩ्हें अग्नि परीक्षा का स्मरण कराते हैं… परन्तु, राम कहते हैं कि…. वे प्रजा के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर रहे हैं क्योंकि राजा और उसके कार्यों के प्रति प्रजा में तनिक भी संदेह नहीं होना चाहियॆ, और इसके लिये वे बड़ा से बड़ा त्याग करने को तत्पर हैं।
एक तो ऐसी सोच कि…… ‘प्रजा में तनिक भी संदेह नहीं होना चाहियॆ’ अव्यावहारिक है और गलत है.. क्योंकि, अज्ञान में, या भोलेपन में लोगों का संदेह करना बहुत स्वाभाविक है।
दूसरे, यदि संदेह हैं, तब उऩ्हें संदेह दूर करना चाहिये।
परन्तु…. प्रक्षेपित राम के इस त्याग से संदेह तो दूर नहीं हुआ… बल्कि उलटे ही सीता का दोषी होना सिद्ध हो गया……।
हालाँकि….लोक में राजा या उसके कार्यों के प्रति तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिये….. किन्तु , क्या उस संदेह को दूर करने के लिये जनता को अग्निपरीक्षा का सत्य ज्ञान देना उचित तथा पर्याप्त नहीं होता …. जो कि उनका परम कर्तव्य बनता था….?????
इस तरह…. झूठ-प्रक्षेपित राजा राम तो बार बार मूर्ख ही सिद्ध होता है…।
भवभूति का किसी काल्पनिक घटना को विश्वसनीय बनाने की कला का यह उदाहरण इतना सशक्त है कि….. अच्छे से अच्छे विद्वान भी इसके बहाव में बहकर उन पर विश्वास करने लग जाते हैं।
इतने ऊँचे (?) भावुक आदर्श राजा, भवभूति जैसे करुण रस के सिद्ध कवि द्वारा वर्णित तो साहित्य में ही हो सकते हैं, जीवन में नहीं… क्योंकि, यथार्थ के जीवन में ऐसे आदर्शवादी राम जब न्यायाधीश की पीठ पर आसीन हैं तब वे अपने आदर्शों के अनुरूप निर्णय तो ले सकते हैं किन्तु उसके लिये उऩ्हें न्यायिक प्रक्रिया पूरी करना ही चाहिये।
भवभूति के प्रक्षेपित राम तो बिना किसी पक्ष को सुने केवल सुनी हुई बात के आधार पर प्रथम सुबह ही सीता को चुपचाप त्याग देते हैं.. जबकि, वे अपने मंत्रिमण्डल न सही.. परन्तु , अपने गुरु वशिष्ठ से सलाह ले सकते थे…!
साथ ही …. इसमें इतनी शीघ्रता की आवश्यकता भी समझ में नहीं आती…… सिवाय इसके कि ….. यह एक झूठी और, किसी के मर्यादा को ख़राब करने कि साजिश मात्र है…!
6:- साथ ही…..यह प्रश्न मात्र उनके व्यक्तिगत जीवन का नहीं था… बल्कि, इसमें प्रजा के हित का प्रश्न था।
कोई भी यह कैसे मान सकता है कि ……राजा की किसी भी नीति से या कर्म का एक व्यक्ति भी विरोध नहीं करेगा ?????
समाज में हजारों तरह के व्यक्ति होते हैं… तथा , उनकी हजारों तरह की सोच होती है।
अन्य जनता…. जिसे ‘अग्नि परीक्षा’ याद है……… राम द्वारा सीता जी को वनवास दिये गए इस त्याग से क्या निष्कर्ष निकालेगी ?????
क्या उन्हें दुख नहीं होगा कि ….उनके आदर्श राजा राम ने अपनी निर्दोष पत्नी को एक अफ़वाह के आधार पर या बिना किसी कारण के वनवास दे दिया ????
साथ ही वे इस घटना से क्या सीखेंगे ????
समाज में पत्नियों की क्या दशा होगी….??????
क्या ऐसे राजा के राज्य में .. कोई भी स्त्री अपने आप को सुरक्षित अनुभव करेंगी……????
क्या कोई भी मनुष्य किसी भी बात पर राम का उदाहरण देकर अपनी पत्नी को निष्कासित नहीं कर सकेगा …???????
याद रखें कि…अधिकांश जनता ने तो राम पर कोई भी आरोप नहीं लगया था… फिर भी उनमें से किसी ने क्यों नहीं इसका प्रतिवाद किया …?????
दरअसल…. यह चूक फ़िर उस शत्रु से हो गई जिसने प्रक्षेप डाला था.. क्योंकि, ऐसे अव्यावहारिक आदर्श के साथ तो कोई भी राज्य नहीं कर सकता, अत: राम राजा बनने के योग्य नहीं थे – यही तो उद्देश्य है उन शत्रु साहित्यिक चोरों का ।
7:- और यदि… एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि… सीता को लोकनिंदा के भय से त्यागा था….. तब, जनता में उसकी घोषणा करवाना भी तो आवश्यक होता….. ताकि जनता उससे कुछ सीखे।
कम से कम उस धोबी को तो संदेश पहुँचाना ही चाहिये था ….. जिसके आरोप के कारण उऩ्होंने इतना बड़ा त्याग किया था।
परन्तु…. ऐसा भी राम ने नहीं किया… और, उऩ्होंने छलपूर्वक चुपचाप सीता जी को वन भेज दिया, जो और भी घृणित था।
ऐसा झूठ- प्रक्षेपित न्यायाधीश राम तो पुरुष के अहंकार में रहने वाला, सती स्त्री को यंत्रणा देने वाला तथा मूर्ख और अतिभावुक सिद्ध होता है।
8:- दरअसल….. चरित्रवान स्त्री पर अत्याचार की आधारभूमि तो चोरों ने पद्मपुराण आदि अनेक ग्रन्थों में भवभूति के पहले ही तैयार कर दी थी ।
यहाँ… मैं भवभूति का उदाहरण इसलिये ले रहा हूं क्योंकि….. वह बहुत प्रभावी है, लोकप्रिय है, और संस्कृत के स्नातकोत्तर शिक्षा के पाठ्यक्रम में अंग्रेजों के समय से ही पढ़ाया जाता रहा है।
भवभूति ने अद्भुत कल्पना तथा सृजनशीलता का दुरुपयोग करते हुए ‘उत्तर रामचरित’ नाटक लिखा… और, अपने गलत उद्देश्य को विश्वसनीय बनाने के लिये एक बहुत ही रससिक्त और रोचक रचना की जाती है।
भवभूति का उत्तररामचरित ऐसा ही ग्रन्थ है… और, इसका सिद्धान्तन तो विरोध नहीं किया जा सकता क्योंकि यह तो साहित्यकार का जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह रचना करने के लिये स्वतंत्र है।
किन्तु हमें उसके कुप्रचारात्मक दृष्टिकोण से सावधान तो रहना ही चाहिये… क्योंकि, इस नाटक में करुणरस के सिद्ध कवि भवभूति ने सीता जी को इतनी करुणाजनक स्थिति में दर्शाया है कि पाठक आँसू बहा बहाकर भवभूति की प्रशंसा करे ।
इसके लिये उऩ्होंने राम के द्वारा गर्भवती सीता को वन में निष्कासित किया क्योंकि….. एक धोबी (या अनेक जन) उन पर लांछन लगा रहे थे।
और देखिये उनका कौशल कि …… राम को बदनाम करने के ध्येय को छिपाने के लिये राम को एक तरह से लोक का सम्मान करने वाला राजा घोषित कर दिया…..तथा, सबसे बड़ा त्याग करने वाला भी।
प्रत्यक्ष में उऩ्होंने राम की बुराई नहीं की……. किन्तु अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावी रूप से राम को पुरुषवादी…मूर्ख और स्त्री का अपमान करने वाला सिद्ध कर दिया।
अरे भाई, जो राजा अपनी पत्नी को सती जानते हुए और वह भी गर्भवती अवस्था में मात्र कुछ अज्ञानी लोगों के गलत विचारों के ‘सम्मान’ के लिये जंगल भेज दे, वह स्त्री जति का अपमान करने वाला पुरुषवादी या मूर्ख नहीं तो और क्या हो सकता है ??????
यदि वे संतान के जन्म तक रुक नहीं सकते थे ….तो, गुरु से या अन्य मंत्रियों से सलाह तो ले सकते थे ।
हालाँकि, तुलसीकृत रामचरित मानस में दो बालकों का जन्म अयोध्या के महलों में ही होता है… और, जिसका वर्णन मात्र एक चौपाई में किया गया है।
भवभूति के पहले भी राम की अनेक कथाओं में, साहित्यिक कृतियों और पुराणों में यह ‘झूठी घटना’ मिलती है, विशेषकर पम्म पुराण में और पद्मपुराण में…..।
और, मजे की बात यह कि,,,,, व्यास जी ने महाभारत की रचना की और १८ पुराणों की भी,,,,।
महाभारत में जो रामकथा वर्णित है …..उसमें तो…… सीता वनवास की छाया भी नहीं है….. जबकि, पद्मपुराण में यह दोनों कथाएं हैं….. अर्थात , पुराणों में भी भयंकर प्रक्षेप हैं।
और, इऩ्ही पुराणों के प्रक्षेपों के आधार पर ……कुछ साहित्यिकों ने ‘सीता के वनवास’ वाली कथा को लिया है…..फ़िर भी , यह शोध का विषय तो है कि ….ऐसा झूठ- प्रक्षेप पहली बार किसने और कहां डाला ???????
मुख्य बात यह है कि यह प्रक्षेप यह झूठ हमारे आदर्शों को बिगाड़ता है, हमारे समाज को तोड़ता है…. इसीलिए , जहां जहां यह प्रक्षेप है, इसे वहां से हटाना ही चाहिये ।
दरअसल…. उन दिनों जब मुद्रण के लिये प्रैस नहीं थे तब प्रक्षेप डालना बहुत आसान था……विशेषकर किसी समृद्ध व्यक्ति के लिये……. क्योंकि, धन खर्च कर १०० – २०० प्रतियां लिखवाकर वितरण करवाना ही तो था।
लेकिन सबसे प्रश्न उठता है कि….. हम इतने भोले भाले कैसे बन गए कि….. इतनी तर्क विरोधी, आदर्श विरोधी और असंगत बातें हम बिना विचार विमर्श के मान जाते हैं ?????
शायद सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने हमारी विवेचना शक्ति को कुंठित कर दिया है……। मु
लेकिन…. मुझे आशा है कि….अब स्वतंत्रता प्राप्ति के 66 वर्षों बाद हम तर्क संगत सोच विचार कर अपने सबसे बड़े महाकाव्य “”रामायण”” को प्रदूषण मुक्त कर ही सकते हैं…!